देहरादून। बदरीनाथ और मंगलौर विधानसभा उपचुनाव भाजपा के दो नए सांसदों की पहली परीक्षा थी। पहली परीक्षा में गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी को करारा झटका लगा है। वहीं हरिद्वार सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिए मंगलौर विधानसभा उपचुनाव के नतीजे उत्साह पैदा करने वाले हैं। भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में मंगलौर में इतिहास रचने का मौका उनके सामने है। इन दोनों उपचुनाव में जनता ने राजनीतिक दलों और नेताओं को बड़ा और स्पष्ट संदेश भी दे दिया है। साफ कर दिया है कि यहां थोपे गए प्रत्याशियों और हवा हवाई राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं है। पार्टी की ओर से ऐसा कुछ भी किया गया, तो उसे इसका खामियाजा ही भुगतना होगा।
गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र को हमेशा से भाजपा का अभेद दुर्ग माना जाता है। यही वजह है, जो यहां दशकों से भाजपा का कब्जा रहा है। लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, भाजपा हमेशा विरोधियों पर भारी रही है। मौजूदा समय में तो भाजपा के यहां लोकसभा क्षेत्र में कुल 14 में से 13 विधायक रहे। इस सीट पर भाजपा का प्रभाव इस कदर रहा कि यहां कांग्रेस के प्रत्याशी रहे मनीष खंडूडी पांच साल तैयारी करने के बाद ऐन मौके पर रणछोड़दास बन गए। इतनी मजबूत स्थिति में होने के बावजूद इस सीट से भाजपा प्रत्याशी अनिल बलूनी चुनाव जीते जरूर, लेकिन भाजपा को यहां जीतने के बाद भी दो लाख वोटों का झटका लगा।
साढ़े तीन लाख वोटों से जीतने वाले तीरथ सिंह रावत की जगह इस बार अनिल बलूनी सिर्फ करीब डेढ़ लाख वोटों से ही जीत पाए। इस जीत के बाद उनके ऊपर राजेंद्र भंडारी को बदरीनाथ सीट से चुनाव जिताने की जिम्मेदारी थी। क्योंकि भंडारी की ज्वाइनिंग में भी अहम और निर्णायक भूमिका बलूनी की ही रही। ऐसे में बलूनी के सामने भंडारी को बदरीनाथ सीट में चुनाव जिताने की सबसे अहम जिम्मेदारी थी। ऐसे में भंडारी की हार उनके लिए भी एक बड़ा झटका है। दूसरी ओर हरिद्वार सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिए मंगलौर के नतीजे हार के बावजूद राहत भरे हैं। क्योंकि मंगलौर में भाजपा कभी भी मजबूत स्थिति में नहीं रही। हमेशा भाजपा की स्थिति तीसरे नंबर पर ही रहती थी। इस बार गजब चौंकाने वाले अंदाज में भाजपा ने मंगलौर सीट पर अपनी पकड़ मजबूत की है। इस सीट पर मुकाबला पूरी तरह सांस रोकने वाला रहा।
इन दोनों नतीजों ने भाजपा आला कमान को भी बड़ा संदेश दिया है। साफ कर दिया है कि चुनाव में जमीनी नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं की अनदेखी होने पर उसका सीधा प्रभाव चुनाव नतीजों पर पड़ सकता है। इस नतीजे ने पहाड़ के मिजाज से भी नेताओं और राजनीतिक दलों को वाकिफ करा दिया है। साफ कर दिया है कि पहाड़ में जनता और कार्यकर्ताओं को हांका नहीं जा सकता।