By yogesh bhatt, Senior journalist
ब्यूरोक्रेसी में पद की ताकत जब घमंड, रौब, उत्तेजना, ठाठ बाट, निरंकुशता और उन्माद में तब्दील हो जाए तो किसी की भी योग्यता, आत्मसम्मान और व्यक्तित्व का अनादर होना निश्चित है । राजकीय मेडिकल कालेज देहरादून की एशोसिएट प्रोफेसर डा. निधि के साथ यही हुआ, वह राज्य की सीनियर ब्यूरोक्रेट चिकित्सा शिक्षा एवं स्वास्थ्य सचिव पंकज पाण्डेय का शिकार सिर्फ इसलिए हो गयीं क्योंकि उनकी पत्नी को डा. निधि का स्वाभिमान रास नहीं आया । पत्नी की नाराजगी से तिलमिलाये सचिव साहब ने तत्काल डा. निधि का तबादला देहरादून से अल्मोड़ा कर दिया ।
उत्तराखंड के लिए यह नया नहीं है। पंकज पाण्डेय और उन जैसे कुछ दूसरे नौकरशाहों के यहां हर रोज सैकड़ों लोगों के आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ होता है। छोटे कर्मचारियों से लेकर और मझौले अधिकारी तक इस तरह की निरंकुशता का शिकार होते हैं । कोई नौकरी खोने के डर से तो कोई परिवार और समाज के कारण नौकरशाहों की गुलामी बर्दाश्त कर रहा है।
डा. निधि इसमें अपवाद रहीं जिन्होंने क्षमायाचना नहीं की बल्कि प्रतिकार किया। उन्होंने न खुद का स्वाभिमान गिरने नहीं दिया और न पेशे का सम्मान । सचिव के तबादला आदेश के प्रतिउत्तर में उन्होंने सरकार को अपने पद से ही इस्तीफा सौंप दिया। बहरहाल बात बढ़ी और सवाल उठने लगे तो सरकार ने आनन फानन में डाक्टर का तबादला आदेश स्थगित कर दिया और एक जांच बैठा दी।
असहज सरकार को इस कदम से फौरी राहत तो मिली होगी लेकिन मर्ज ज्यों का त्यों है ? राज्य की ब्यूरोक्रेसी बीमार है । क्या गारंटी है कि इस जांच का हश्र एनएच घोटाले की जांच सरीखा नहीं होगा ? क्या गारंटी है कि अब कोई नौकरशाह अपने पद का दुरूपयोग नहीं करेगा ?
कहते हैं बात निकलगी तो दूर तक जाएगी। हाल ही में राजकीय दून मेडिकल कालेज की एसोसिएट प्रोफेसर डा. निधि के कंडिशनल इस्तीफे ने राज्य की ब्यूरोक्रेसी को बेनकाब कर दिया है । बता दें कि चिकित्सा शिक्षा सचिव पंकज पाण्डेय ने डा. निधि का तबादला देहरादून मेडिकल कालेज से अल्मोड़ा कर दिया था । डाक्टर ने इस आदेश के विरोध में इस्तीफा लिखा तो मामला ब्यूरोक्रेसी की सनक का निकला ।
पता चला कि डा. निधि का तबादला सामान्य प्रक्रिया नहीं बल्कि सचिव साहब की व्यक्तिगत नाराजगी का नतीजा है । नाराजगी भी यह कि डा. निधि ने सचिव की पत्नी के अभद्र व्यवहार पर आपत्ति जतायी और इसके लिए खेद भी व्यक्त नहीं किया । बकौल डा. निधि मेडिकल कालेज प्रबंधन के निर्देश पर वह अस्पताल में मरीजों को छोड़कर चिकित्सा शिक्षा सचिव की पत्नी के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए उनके आवास पर पहुंची ।
अस्पताल के मरीजों को बीच में छोड़कर किसी का घर जाकर स्वास्थ्य परीक्षण करना उनका दायित्व नहीं था, फिर भी विभागीय उच्चाधिकारी होने के नाते वह गयीं । डा. निधि के अनुसार उनके साथ सचिव की पत्नी ने अभद्र व्यवहार किया, जिस पर उन्होंने मौके पर आपत्ति दर्ज की और वापस अस्पताल लौट आयीं ।
पूरे मामले में आश्चर्यजनक यह है कि इसके बाद उल्टा डा. निधि पर ही खेद व्यक्त करने का दबाव डाला गया, जिसे स्वीकार न करने पर उसी दिन उनका तबादला आदेश कर दिया गया । सचिव पंकज पाण्डेय ने इसे झूठा और निराधार करार दिया है। उनके अनुसार विभागीय प्रक्रिया के तहत ही डा. निधि का तबादला देहरादून से अल्मोड़ा किया गया था ।
फिलहाल यह स्पष्ट है कि डा. निधि को सचिव की पत्नी के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए आवास पर भेजा गया था । यह भी साफ है कि ऐसा किसी इमरजेंसी में नहीं किया गया । बस यहीं से सवाल उठने शुरू होते हैं । बात तबादले की नहीं है बल्कि मंशा की है ।
मान भी लिया जाए कि तबादला विभागीय प्रक्रिया के तहत हुआ तो सवाल यह है कि क्या इसमें विभागीय मंत्री को विश्वास में लिया गया । अगर नहीं लिया गया तो यह अपने आप में संदेहास्पद है । यह भी पता चला है कि विभागीय मंत्री को इसकी जानकारी तक नहीं थी ।
दूसरा अहम और सीधा सवाल यह भी है कि सरकारी अस्पताल में मरीजों का परीक्षण कर रहे या डयूटी के वक्त पर किसी डाक्टर को सचिव की पत्नी का स्वास्थ्य परीक्षण करने के लिए भेजना भी क्या विभागीय प्रक्रिया है ? यदि नहीं तो फिर इसे क्या कहा जाए ? बताइये, यह पद का दुरूपयोग और सिस्टम से खिलवाड़ नहीं तो क्या है ? यह भ्रष्टाचार नहीं है तो क्या है ? यह अराजकता और निरंकुशता नहीं तो क्या है ?
विडंबना देखिए यह रवैया उस राज्य के स्वास्थ्य व चिकित्सा शिक्षा सचिव का है, जहां तीन चौथाई से अधिक आबादी को अस्पताल पहुंचकर भी स्वास्थ्य सुविधाएं मयस्सर नहीं हैं । यह हाल उस राज्य के शासन तंत्र के हैं, जहां चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में आए दिन बीमार अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं तो प्रसूता सड़क पर ही प्रसव को मजबूर हो जाती हैं ।
मामला फिलहाल शांत करने की कोशिश की गयी है। सरकार ने डाक्टर का तबादला रोककर जांच बैठा दी है । मगर सवाल सिर्फ डा. निधि और सचिव पंकज पाण्डेय के बीच हुए घटनाक्रम का ही नहीं है । जहां तक आईएएस पंकज पाण्डेय का सवाल है तो विवादों से उनका पुराना नाता रहा है। सरकार पहले भी कई मौकों पर उन्हें लेकर असहज रही है।
कभी एनएच घोटाले में तो कभी कौशल विकास केंद्रों में मनमानी को लेकर वह सवालों के घेरे में रहे हैं। राजधानी में एक निजी मेडिकल कालेज को लेकर उनकी भूमिका पर गंभीर सवाल हैं तो उनकी हनक, रौब और सरकारी सिस्टम के दुरूपयोग को लेकर भी तरह तरह की चर्चाएं आम हैं । इस सबके बाद भी उनका बाल बांका नहीं हुआ।
अहम यह है कि पंकज पाण्डेय अकेले नहीं है और भी अधिकारी हैं जिनका इसी तरह का रवैया है । यहां सवाल डा. निधि के अनादर का नहीं उन सैकड़ों अधिकारी कर्मचारियों का है, जिनकी सुबह साहब और मैडम की चाकरी से शुरू होती है और शाम बच्चों की फरमाईश पूरी करने के साथ ढलती है। सवाल देहरादून से दिल्ली तक सरकारी दफतर के नाम पर साहब के बंगलों में तैनात उन कर्मचारियों की मनोदशा और भविष्य का भी है, जो सरकारी नौकरी के नाम पर साहब की पत्नी और बच्चों का हुक्म बजा रहे हैं ।
निसंदेह डा.निधि के जज्बे और हिम्मत की दाद दी जानी चाहिए लेकिन सच यह भी है कि वह कोई सामान्य अधिकारी नहीं है। वह मेडिकल कालेज की ऐसोसिएट प्रोफेसर हैं, कोरोना महामारी के दौर में उन्होंने दिनरात डटकर अपनी सेवाएं दी हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सामान्य नहीं है । उनका ताल्लुक राजधानी के एक प्रतिष्ठित बड़ोनी परिवार से है।
वह बहुचर्चित एवं प्रतिष्ठित ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेलवे प्रोजेक्ट के चीफ प्रोजेक्ट मैनेजर हिमांशु बड़ोनी की पत्नी है । कल्पना कीजिए नौकरशाही का यह रवैया डा. निधि के साथ रहा तो एक आम आदमी की हैसियत इनकी नजर में क्या होगी ? इसलिए सवाल पूरे सिस्टम का है, सवाल सरकार की साख का है, सवाल सुशासन का है, सवाल प्रशासनिक मूल्यों का है और सवाल पीढ़ियों के भविष्य का भी है ।
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि ब्यूरोक्रेसी इस राज्य के लिए गंभीर बीमारी का रूप ले चुकी है । जिसके आगे पूरा सिस्टम असहाय है। इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि राज्य के मंत्रियों को अपने सचिवों की एसीआर यानि वार्षिक गोपनीय प्रविष्ठि लिखने तक का अधिकार नहीं है । राज्य के मंत्री खुद सरकार से हक मांग रहे हैं और सरकार है कि अपने अधिकार का इस्तेमाल करने के बजाय नौकरशाही को ही इस पर कमेटी गठित करने को कह देती है।
मतलब साफ है कि जब सिस्टम में मंत्री की यानि जनता के चुने नुमाइंदे की ही सुनवाई नहीं है तो फिर एक आम आदमी की सुनवाई कैसे संभव है ? साफ है कि सरकार ब्यूरोक्रेसी के दबाव में है । बताईए इस हाल में किसी राज्य में सुशासन की बात कैसे कही जा सकती है। आखिर यह कैसा सुशासन है जिसमें एक लोक सेवक राजा की तरह व्यवहार करने लगता है और पूरा सिस्टम उसकी अंगुली पर नचाने लगता है ।
दरअसल खोट तो सिस्टम में ही है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त स्वर्गीय टीएन शेषन ने तो भारतीय ब्यूरोक्रेसी यानि नौकरशाही को परिष्कृत वैश्या (polished call girl) कहा ही था। सच भी यही है कि मौजूदा नौकरशाही राजनेताओं को अपने मायाजाल में फंसाकर पूरे सिस्टम को अपनी अंगुली पर नचाती है ।
जब सिस्टम उनके मुताबिक नाचने लगता है तो नौकरशाह खुद को लोक सेवक नहीं सिस्टम को अपना गुलाम समझ बैठते हैं। यही कारण है कि सालों बाद भी देश की प्रशासनिक व्यवस्था में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है ।
ऐसा नहीं है कि सुधार की कोशिश नहीं हुई ,समय समय पर इसके लिए आयोग और समितियां गठित होती हैं। हर सिफारिश में प्रशासन को नागरिक केंद्रित बनाने और प्रशासनिक नैतिकता को केंद्रीय मूल्य बनाने पर जोर दिया गया। साल 2008 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने तो इस पर सरकार को आठ प्रत्यावेदन सौंपे ।
उत्तराखंड के भी शुरूआती दौर में ही प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया गया । यहां भी आयोग ने तमाम सिफारिशों के साथ सरकार को प्रत्यावेदन सौंपे । दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि आयोगों के उन प्रत्यावेदनों पर न केंद्र में अमल हुआ न ही राज्यों में ।
उत्तराखंड में प्रशासनिक सुधार की आज सख्त आवश्यकता है । यह सिर्फ पंकज पाण्डेय और उन जैसे दूसरे अफसरों पर अंकुश के लिए ही नहीं बल्कि षणमुगम और उन जैसे साफ छवि के तमाम अफसरों की साख के लिए भी जरूरी है जो प्रशासनिक सेवाओं के मूल्यों को जिंदा रखे हुए हैं।
यह भी एक तथ्य है कि राज्य में हर नौकरशाह बेईमान और संवेदनहीन नहीं है। नौकरशाही में अभी भी जिम्मेदार और ईमानदारों की संख्या ज्यादा है ।आज भी कई लोकसेवक उदाहरण हैं, जिनकी कार्यशैली ईमानदारी और सकारात्मक मानसिकता ने नए आयाम स्थापित किए हैं। मगर दुर्भाग्य यह है कि राज्य में ब्यूरोक्रेसी में ऐसे नौकरशाहों को सियासी नेतृत्व ने हमेशा हाशिए पर रखा है ।
- देर सबेर सरकार को यह समझना होगा कि राज्य में आम आदमी का दर्द बीमार ब्यूरोक्रेसी है । उसी के कारण राज्य की अवधारणा पर भी सवाल उठ रहा है। अब तो कहा जाने लगा है कि क्या इसी दिन के लिए यह राज्य मांगा था ?
बहरहाल डा. निधि और मंत्रियों द्वारा एसीआर लिखे जाने का हक मांगे जाने के बहाने ही सही घातक मर्ज बन चुकी ब्यूरोक्रेसी का इलाज तो होना ही चाहिए । आखिरकार लोकतंत्र में महत्व लोक का ही है और एक लोक सेवक को हर हाल में लोक के प्रति उत्तरदायित्व का अहसास होना ही चाहिए ।
इसके लिए जरूरत सिर्फ राजनैतिक इच्छाशक्ति की है, नयी सरकार के पास मौका भी है और युवा नेतृत्व उम्मीद भी । सच पूछिए तो पीर पर्वत सी बढ़ी है, अब देखना यह है कि ‘मर्ज’ की दवा जनता की चुनी सरकार करती है या फिर खुद जनता ।