#विधानसभा_की_नियुक्तियों के प्रसंग में माननीय अध्यक्ष विधानसभा के मुख्यमंत्री पोषित या अनुमोदित जो भी है, 228 कर्मचारियों के बर्खास्तगी के निर्णय के जश्न में मैं बाधा नहीं डालना चाहता हूं। मगर हमको एक बात समझने की आवश्यकता है कि विधानसभा में नियुक्तियों का प्रसंग चर्चा में राजनीतिक लोगों में भले ही पहले से रहा हो, लेकिन मीडिया का ध्यान इस ओर अभी-2 गया। विधानसभा नियुक्ति प्रकरण सार्वजनिक बहस का हिस्सा बन पाया, जब 2021 के उत्तरार्ध और 2022 के शुरुआत में कुछ नियुक्तियां विधानसभा में हुई। जिनको लेकर कई प्रकार की बातें चर्चा में आई। नियुक्तियों में धन लेने की बात भी आई। सत्ताधीशों के रिश्तेदारों की नियुक्ति की बात भी आई। कुछ उत्तराखंड से बाहर के लोगों के जिनके पते ही उत्तराखंड में नहीं मिल रहे हैं, उनकी नियुक्ति की बात भी आई। सत्ता के कुछ हितैषियों ने फिर 2016 में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष द्वारा की गई नियुक्तियों को उठाया। कुछ लोगों ने आगे बढ़कर 2001 से ही जो नियुक्तियां की जाती रही हैं, उनमें हुए भाई-भतीजावाद को उठाया। लोगों ने कहा कि इन नियुक्तियों का कोई संविधान सम्मत आधार नहीं है और बिना नियमावली के ये नियुक्तियां हुई हैं। आलोचना तर्क व तथ्य संगत थी।
हाकम सिंह के हाकमों तक एस.टी.एफ. की जांच आगे बढ़े इसके लिए राज्य में एक प्रखर दबाव था। सत्ता असहज थी। इस प्रकरण ने सत्ता को सुकून दिया और सत्ता ने तत्परता से इसकी जांच कराए जाने की बात की और माननीया अध्यक्ष विधानसभा ने एक टीम गठित कर उनके लिए समय सीमा निर्धारित कर दी। कुछ क्षेत्रों से मांग उठी कि 2001 से लेकर जितनी भी नियुक्तियां हुई, सब करीब-करीब एक समान हैं इसलिये सबकी जांच हो। बहरहाल माननीय स्पीकर महोदया और माननीय मुख्यमंत्री जी ने इसको 2016 की नियुक्तियों तक ही सीमित करना मुनासिब समझा। माननीय स्पीकर ने माननीय मुख्यमंत्री की स्वीकृति लेकर वर्ष 2016 से 2021-22 तक हुई नियुक्तियां बर्खास्त करने का फैसला किया। इन बर्खास्त लोगों में 1-2 नियुक्तियां वह भी हैं, जो लोग मृतक आश्रित के तौर पर विधानसभा में नौकरी पर लगे थे। जांच टीम ने क्या विस्तृत रिपोर्ट दी है, यह मेरे संज्ञान में नहीं है और यह शायद किसी सरकारी वेबसाइट में भी अभी नहीं डाली गई है। मगर इससे एक बात स्पष्ट हो गई की जांच टीम ने जो सबसे कमजोर गर्दनें थी उन्हीं को कलम करने की संस्तुति की है। ये सब लोग तदर्थ नियुक्ति वाले लोग थे। उन्हें ही बर्खास्त किया गया है। दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया, सचिव को निलंबित करने का, इसकी खूब प्रशंसा हुई। उसमें भी ऐसा लगता है कि कमजोर गर्दन में ही हाथ डाला गया है! विधानसभा का सचिव किसी भी परीक्षा को करवाने का या कुछ भी बड़ा निर्णय, बिना विधानसभा अध्यक्ष के अनुमोदन या आदेश के नहीं कर सकता है। जांच में यह नहीं बताया गया है कि सचिव विधानसभा के निर्णयों में अध्यक्ष जी का आदेश था या नहीं। इस पर समाचार पत्र मी मौन हैं! 2021-22 की इन नियुक्तियों में धन लिए जाने, बाहरी लोगों की नियुक्ति और सत्ता की हनक के आधार पर नियुक्ति पाने वालों का ब्यौरा मीडिया में आया था, उसके सही या गलत होने के विषय में माननीय स्पीकर ने कुछ नहीं कहा है। जहां तक एडहॉक कर्मचारियों को बर्खास्त करने का सवाल है, सबसे सॉफ्ट ऑप्शन है। लेकिन तत्काल वाहवाही लूटने के लिए यह सबसे उपयुक्त निर्णय है। राज्य के लिए इस निर्णय के परिणाम दूरगामी होंगे। इस राज्य के अंदर अस्थाई, तदर्थ व आउट सोर्स नियुक्तियों में हर सरकार ने पर्याप्त उदारता दिखाई है। हमारे समय में हमने उन तदर्थ कर्मचारियों का नियमितीकरण किया। हजारों कर्मचारी ऐसे मिलेंगे जो इस प्रक्रिया से नियुक्त हुए हैं। जिन लोगों को बर्खास्त किया गया है, उनमें से भी कुछ उपनल कर्मी हैं। चाहे उपनल कर्मियों हों या दूसरे लोग हों, जो एडवोक प्रक्रिया से सेवारत हैं उनका प्रश्न उठेगा। आने वाले समय में सरकार के लिए भी किसी की सेवाएं समाप्त करना अब सरल हो जाएगा। जो लोग नियुक्ति नहीं पा रहे होंगे, वो अब इसका सहारा लेकर न्यायालय की शरण में जाएंगे। स्वभाविक है।
मुझे एक ऐतिहासिक निर्णय की अपेक्षा थी। इस समस्त प्रकरण में तीन प्रकार की गलतियां हुई हैं, प्रक्रिया संबन्धी या संवैधानिक व्यवस्थाओं से संबंधित जिनका पालन नहीं हुआ है। यह गलती प्रारंभ से अर्थात 2001 से होती आई है। दूसरी गलती लोगों ने अपने सगे संबंधियों को नियुक्त करवाया। भारी संख्या में प्रत्येक कालखंड में सत्ताधीशों ने अपने लोगों व पार्टी के अनुयायियों को नियुक्त किया है। मेरा स्पष्ट मत है ऐसी नियुक्तियां कोई नैतिक आधार नहीं रखती हैं। मेरा यह मत 2016 में माननीय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली बेंच और सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली बेंच द्वारा इन नियुक्तियों को विधि व प्रक्रिया सम्मत माने जाने के बावजूद है। कमेटी ने इस आधार को छुआ ही नहीं। यदि जांच के बाद ऐसी सभी नियुक्तियां चिन्हित होती तो बर्खास्तगी के निर्णय को नैतिक बल प्राप्त होता।भविष्य के लिए यह निर्णय उदाहरण बनता। जिन नियुक्तियों में धन लेने का सवाल उठा है। जिनमें उत्तराखंड से बाहर के लोगों की नियुक्तियां का सवाल उठा है। उस पर जांच चुप क्यों है! कमेटी ने नियुक्तियों को यदि हर नियुक्ति के आधार पर रद्द किया है तो फिर क्या उनमें कुछ नियुक्तियां इस आधार पर निरस्त की हैं कि उसमें धन का आदान-प्रदान हुआ है या इस आधार पर भी रिजेक्ट की हैं कि वह किसी के रिश्तेदार हैं! क्या इस आधार पर भी रिजेक्ट की गई है कि वह उत्तराखंड के बाहर के लोग हैं। कमेटी व माननीय अध्यक्ष विधानसभा ने इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि यह समस्त नियुक्तियां वर्ष 2001 से 2022 तक लगभग एक ही प्रकार से की गई हैं। हां वर्ष 2016 की नियुक्तियों तक विधानसभा अध्यक्ष के नियुक्ति अधिकार की नियमावली बना चुकी थी और 2016 की नियुक्तियों की वित्तीय आदि स्वीकृतियां शासन से नियुक्तियों को करने से पहले ली गई थी। शेष कालखंडों की नियुक्तियों में इन औपचारिकताओं का भी पालन नहीं हुआ है। वर्ष 2021-22 की नियुक्तियों में तो शासन का वित्तीय अनुमोदन नियुक्ति प्रदान करने के बाद लिया गया है, शायद 6 माह बाद। यह तथ्य है कि पहली विधानसभा में मंत्रीगणों के रिश्तेदार, मंत्री के पुत्र-पुत्रियां, रिश्तेदारों और तत्कालीन सत्तारूढ़ दल के कुछ खास लोगों को महत्वपूर्ण स्थानों पर नियुक्ति दी गई और आज भी वह महत्वपूर्ण पदों पर हैं। दूसरे व तीसरे स्पीकर के समय में भी तदर्थ नियुक्तियां हुई हैं। एक तर्क दिया गया है कि ये सभी नियुक्तियां अब नियमित कर दी गई हैं। यदि दो कालखंडों की नियुक्तियां तदर्थ थी रद्द हो गई, समझ में आता है। मगर यह तर्क समझ में नहीं आता है कि यदि सन् 2001 से अब तक की नियुक्तियों में किसी नियम प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ है तो क्या उन नियुक्तियों को उचित मान लिया जाए, क्योंकि उन्हें अब नियमित किया जा चुका है। यदि नियुक्ति के समय कोई अनियमितता हुई है तो क्या केवल नियमित होने मात्र से उस कर्मचारी को अनियमितता, तथ्य छुपाने, गलत दस्तावेज देने या कम योग्यता के बावजूद उच्च पद पाने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है। कमेटी व माननीय स्पीकर का निर्णय इस गंभीर प्रश्न पर मौन है! यह एक कठिन प्रसंग है। जिस ऐतिहासिक निर्णय की उत्तराखंड प्रतीक्षा कर रहा था। यह वास्तव में ऐसा नहीं है। कुछ गंभीर अनियमितताओं व आरोपों को छुपाने के लिए कुछ गरीब उत्तराखंडियों की बलि ली गई है।
गलत नियुक्तियां करने वाले व करवाने वाले आज सत्ता संचालक हैं। क्या सभी संवैधानिक प्रक्रिया व नियमावली संबंधी प्रश्नों का समाधान हो चुका है! नौकरी चाहत वाला भोला उत्तराखंडी इन जटिलताओं को नहीं समझता था। उसकी गर्दन कट गई है। विधानसभा भर्ती प्रकरण का देव पूजन हो गया है। माननीय मुख्यमंत्री ने महावाक्य कह दिया है कि इस प्रकरण को समाप्त किया जाए। क्या आप इससे सहमत हैं! सभी कालखंडों में माननीय अध्यक्ष व मुख्यमंत्री बड़े अनुभव के साथ आए थे। जहां-जहां नियुक्तियों में गलती हुई हैं, उन्हें चिन्हित किया जाना चाहिए। हम में से कुछ लोग चले गए हैं, कुछ अभी हैं। राज्य को यह जानने का हक है कि किससे कहां पर गलती हुई है! क्षमा का अधिकार केवल जनता को है। इस प्रश्न पर उद्वेलित राज्य के सवालों का तर्कसंगत व न्याय संगत निर्णय अभी नहीं हुआ है। देखते हैं, निर्णय कौन करता है, समय या सत्ता!
